आज के व्यावसायिक युग में मीडिया में आई व्यावसायिकता स्वार्थपरता और संविधान की आड़ में सामाजिक बंटवारे के लिए चलाये जाने वाले एजेंडा के कारण पत्रकारिता को संविधान का चौथा स्तंभ कहना बेईमानी है | इस परिस्थिति में सरकार को इस विषय पर गाइडलाइन्स लानी चाहिए साथ ही मीडिया चैनल की गतिविधियों को भी कानून के दायरे में लाना चाहिए | अंत में समाज को व मीडिया को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी |
मनुष्य स्वभाव से ही जिज्ञासु है ,उसे वह सब जानना अच्छा लगता है जो सार्वजानिक न हो ,अथवा उसे छिपाने की कोशिश की जा रही हो | और यदि कोई पत्रकार हो तो उसकी कोशिश यही रहती है कि वह ऐसी गूढ़ और छिपी बातों को उजागर करे जो रहस्य की गहराईयों में कैद हो | सामान्यत: इस तरह की पत्रकारिता को ही हम खोजी पत्रकारिता के रूप में जानते है | इसी खोजी पत्रकारिता के सामान्य और अर्थहीन तथ्यों को जब सनसनीखेज बनाकर दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए प्रस्तुत किया जाता है , तो यही टी आर पी बढ़ाने के उद्द्येश्य से ब्रेकिंगन्यूज़ बनाने की पत्रकारिता को पीत पत्रकारिता कहते है | यद्दपि इस प्रकार से की जाने वाली पत्रकारिता किसी अपराध एवं कानून के दायरे में नहीं आती फिर भी सामाजिक दृष्टि से समाचार को इस प्रकार से प्रस्तुत करना तर्क संगत,उपयुक्त अथवा श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता |
इन्टरनेट और सूचना के अधिकार ने पत्रकारों और पत्रकारिता को एक नयी धार प्रदान कर पैना बना दिया है | लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि इसकी आड़ में इसका का प्रयोग ‘ब्लेक्मैलिंग’ जैसे गलत उद्द्येश्यों के लिए ही किया जाने लगा है | समय समय पर हुए स्टिंग ऑपरेशन एवं सी. डी. कांड इसके उदहारण है | खोजी पत्रकारिता एवं पीत पत्रकारिता साहसिक हो यहाँ तक तो ठीक है परन्तु यह मर्यादित होनी चाहिए | दुस्साहस और समाज के अहित का सर्वदा ख्याल रखना चाहिए |
पत्रकारिता के उपयोग से अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अपनी विचार धारा समाज पर थोपने के लिए एवं पत्रकारिता को एक व्यवसाय के रूप मे स्थापित कर आवश्यक धनार्जन एवं प्रसिद्धि प्राप्त करना | इन कारणों से पत्रकारिता आज के युग में सविधान के चौथे स्तंभ होने का गौरव खोती प्रतीत हो रही है | यही कारण है की अब पत्र – पत्रिकाओं को समाज विचारधारा के अनुसार चयनित कर देखने लगा है | आज के युग में संचारक्रांति के बाद अधिकांश समाज समाचारों के लिए टी. वी. पर अत्यधिक निर्भर हो चुका है इस कारण इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर ही आपका ध्यान केन्द्रित करना चाहता हूँ |
आज लगभग सभी समाचार चैनल उन विषयों के चयन को प्राथमिकता दे रहे है, जिनकी प्राय: समाज आवश्यकता ही नहीं है | डिबेट के लिए आमंत्रित वही विद्वान् होते है जिनकी मुख्य विषय पर जानकारी ही नहीं होती | साक्षातकार उन लोगों के प्रसारित कर दिए जाते है, जो प्रसारण के लिए अवांछनीय होते है | और उनके साक्षात्कार भी पूर्व नियोजित होने के साक्ष्य भी मिलते रहते है | सामान्यतः किसी डिबेट का निष्कर्ष ही उसकी सार्थकता होती है किन्तु डिबेट में विषय के विशेषज्ञ के स्थान पर राजनैतिक पक्ष विपक्ष के समर्थक लोगों को प्रस्तुत कर दिया जाता है | जिससे डिबेट सार्थकता दूर आरोप-प्रत्यारोप से आग बढ़कर डिबेट में पराजय के भय के कारण खीज पर समाप्त होती है | जिसके लिए उत्तरदायी समाचार चैनल होता है, कि उसने विशेषज्ञ के स्थान पर राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को डिबेट में स्थान दिया | हद तो तब होती है जब इन राजनैतिक विश्लेषकों को मूल विषय की कोई जानकारी ही नहीं होती और वह अपनी पार्टी का एक एजेंडा चलाने के लिए चैनल का उपयोग करने लगते है |
कुछ चैनल तो पत्रकारिता के नाम पर विपक्ष की भांति हर उस बातका विरोध करने पर उतारू है जो उन्हें सूट नहीं करती ,उनका अपना एक अलग एजेंडा है अपने चैनल पर वह उन्ही विषयों पर और प्रायोजित साक्षात्कार डिबेट आदि आयोजित करते है और उन्ही लोगों को आमंत्रित करते है जो उनके लिए सूट करते हों | हद तो तब हो जाती है जिन लोगों की राष्ट्र एवं संविधान विरोध की संलिप्तता प्रमाणित हो चुकी होती है उन्ही को अपने कार्यक्रम में आमंत्रित कर उनके बचाव में गतिविधियाँ चलाने लगते है | इतना ही नहीं पूर्व सरकारों के कुकृत्यों का महिममंडल एवं वर्त्तमान सरकार के सुधारात्मक एवं देश व समाज के लिए लाभकारी कार्य को भी गलत ठहराकर आलोचना पर उतारू हो कर एक सामाजिक भ्रम का निर्माण कर देते है | यही कारण है कि आज हमारा समाज स्पष्ट रूप से दो वर्गों में विभाजित दिखाई दे रहा है | आज यह स्थिति नहीं है कि दर्शक को समाचार देखने है , आज स्थिति यह है कि उसे किस चैनल पर समाचार देखने है | विचारधारा के इस पूरे बटवारे में सोशल मीडिया भी जिम्मेदार है पर मूल में यह बटवारा मीडिया हाउस द्वारा ही किया गया है |
इन्टरनेट की व्यापकता और उस पर सार्वजानिक पहुँच के कारण आज पत्रकारिता का दुष्प्रयोग बढ़ता ही जा रहा है | इन्टरनेट के प्रयोगकर्ता अपनी निजी भड़ास निकालने के लिए आपत्तिजनक प्रलाप करने लगे है | इस कारण पत्रकारिता एवं सोशल मीडिया जैसे उपयोगी ,माध्यामो का गलत प्रयोग चिंता जनक है | आज के व्यावसायिक युग में मीडिया में आई व्यावसायिकता स्वार्थपरता और संविधान की आड़ में सामाजिक बंटवारे के लिए चलाये जाने वाले एजेंडा के कारण पत्रकारिता को संविधान का चौथा स्तंभ कहना बेईमानी है | इस परिस्थिति में सरकार को इस विषय पर गाइडलाइन्स लानी चाहिए साथ ही मीडिया चैनल की गतिविधियों को भी कानून के दायरे में लाना चाहिए | अंत में समाज को व मीडिया को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी |